Monday 9 November 2015

क्यों जीता महागठबंधन?



बिहार ने गाय की पूंछ पकड़कर सरकार
बनाने के भगवा-तिकड़म को किया खारिज
उर्मिलेश

गाय की पूंछ पकड़कर विधानसभा के अंदर भारी संख्या में दाखिल होने का इरादा पाले भगवा ब्रिगेड को इस बार बिहार ने बुरी तरह निराश किया। जनता ने लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के महागठबंधन को भारी बहुमत से जिताया। लोगों ने अन्य पक्षों को जितना खारिज किया, उससे ज्यादा शिद्दत के साथ नीतीश-लालू को अपनी मंजूरी दी। इस मायने में यह एक सकारात्मक जनादेश है। मई, 2014 के संसदीय चुनाव के जनादेश में कांग्रेंस-नीत यूपीए-2 को अपदस्थ करने की जनाकांक्षा ज्यादा प्रबल थी, जिसका फायदा नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा को मिला था। भाजपा को समर्थन से ज्यादा वह कांग्रेस का विरोध था। बिहार के चुनाव में लोगों ने सत्ता की दावेदारी ठोंक रही भाजपा के नये प्रतीक-पुरूष नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के एजेंडे को नामंजूर कर दिया। राज्य में शासन के लिये नीतीश को बेहतर माना। इस मायने में यह महागठबंधन यानी लालू-नीतीश की एकता के पक्ष में सकारात्मक जनादेश है। नीतीश कुमार बीते दस सालों से राज्य के मुख्यमंत्री हैं। इसके बावजूद उनके खिलाफ किसी तरह की एंटी-इनकम्बेंसी का न होना बहुत बड़ी राजनीतिक परिघटना है। बिहार के लोगों को लगा कि सरकार चलाने के लिये नीतीश से बेहतर कोई नहीं और सामाजिक न्याय के लिये लालू अब भी एक जरूरत हैं।
भाजपा की तरफ से मोदी-शाह की जोड़ी ने इस चुनाव में सर्वाधिक निशाना लालू प्रसाद को बनाया। उन्हें जंगलराज का प्रतीक-पुरूष घोषित किया। जनादेश से साफ है कि अवाम ने लालू के खिलाफ जंगलराज के भाजपाई-जुमले को भी कूड़ेदान में फेंक दिया। दोनों पहलुओं के हिसाब से यह जनादेश जद(यू)-राजद की भारी जन-स्वीकृति का ऐलान है।
चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश ने बार-बार कहा कि महागठबंधन बिहार में समावेशी विकास यानी सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास में यकीन करता है। यही बात लालू अपनी भाषा में कहते रहे। इस मायने में यह जनादेश कारपोरेट-आश्रित विकास की सोच के खिलाफ समावेशी विकास की मंजूरी भी है। कहीं न कहीं, भाजपा और मोदी सरकार के कारपोरेटवाद की नामंजूरी भी है। बीते लोकसभा चुनाव में बिहार की इसी जनता ने भाजपा को भारी बहुमत से जिताया था। तब लालू और नीतीश अलग-अलग लड़ रहे थे। उऩके बिखराव का भाजपा को पूरा फायदा मिला। इसके अलावा जनता ने केंद्र सरकार बनाने के लिये नरेंद्र मोदी को वरीयता दी क्योंकि वे कांग्रेस-नीत यूपीए-2 से बेहद क्षुब्ध थे। देश के अन्य हिस्सों की तरह तब बिहार के लोगों को भी मोदी के गुजरात माडल की बातें सुहानी लगी थीं। लेकिन महज सत्रह महीने में महंगाई, खासकर दालों, अन्य खाद्य सामद्री, दवाओं आदि के दामों में बढ़ोत्तरी हुई, जिस तरह संघ-परिवार से जुड़े संगठनों की तरफ से असहिष्णुता और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया और सरकार खुलेआम लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकृतीकरण करती नजर आई, उसका असर समाज के हर तबके पर पड़ना लाजिमी था। बिहार के जनादेश में इन सभी पहलुओं का हिस्सा है। पर असल बात है-लालू-नीतीश का एक होना। लालू-नीतीश के मिलने से एक पुख्ता चुनावी गठबंधन की बुनियाद पड़ गयी। दोनों के बीच गजब का तालमेल स्थापित हुआ। दोनों एक-दूसरे दलों के लिये वोट ट्रांसफर कराने में भी कामयाब रहे। महागठबंधन ने एनडीए के मुकाबले बेहतर उम्मीदवार दिये(कुछ अपवादों को छोड़कर) और सामाजिक समीकरणों का भी ज्यादा ख्याल रखा। उदाहरण के लिये अपेक्षाकृत यादव-बहुल क्षेत्रों में भी कई जगह कुशवाहा या अति पिछड़ा (ईबीसी)/अल्पसंख्यक प्रत्याशी उतारे।
चुनाव प्रचार अभियान के दौरान लालू ने संघ-प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण-समीक्षा विषयक विवादास्पद बयान को पकड़ा और बिहार के दलित-पिछड़ों के बीच जबर्दस्त गोलबंदी की। उन्होंने बिहार की बडी आबादी के समक्ष संघ-भाजपा के दलित-पिछड़ा विरोधी राजनीतिक शक्ति होने की बात को शिद्दत के साथ पेश किया। इसकी काट में मोदी-शाह की जोड़ी विकास के एजेंडे को भूलकर फिर से भगवा-एजेंडे पर उतर आई। कभी पाकिस्तान में पटाखे फूटने की बात होने लगी तो कभी भाजपा के विज्ञापनों में गाय दिखनी लगी। बिहार के लोगों ने भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को पूरी तरह कूड़ेदान में फेंक दिया। भाजपा-एनडीए  के प्रचार अभियान की एक खास बात उसके खिलाफ गयी। वह थी-एनडीए के प्रचार की मुख्य कमान मोदी-शाह के पास होना। दोनों गैरबिहारी थे। बाहरी बनाम बिहारी का नीतीश का नारा लोगों के दिमाग में जम गया। जिस वक्त प्रधानमंत्री जी किसी क्षेत्र मे भाषण करते हुए कहते-बोलो भाइयों, बिजली पांच  घंटे  भी आती है, नहीं आती है न’, उन क्षेत्रों में तब 20-20 घंटे बिजली आ रही होती थी।  स्थानीय न होना और असलियत से वाकिफ न होना कई बार उन्हें हास्यास्पद बना देता। भाजपा का कोई बिहारी नेता प्रचार अभियान के दौरान उभरकर सामने नहीं आया।  इससे मतदाताओं के सामने असमंजस भी था कि नीतीश के बदले कौन? नीतीश के स्तर का कोई स्थानीय नेता भाजपा के अंदर नहीं दिखा। मोदी-शाह का लहजा कन्वीन्सिंग के बजाय कन्फ्रंटिंग था। जोड़ने के बजाय तोड़क और विघटनकारी था। बिहार कई मायनों मे गुजरात से अलग ढंग का सूबा है। यहां कम्युनल कार्ड नहीं चल पाया। लोग आमतौर पर गाय या दुधारू जानवरों को प्यार करते हैं। गाय की पूंछ पकड़कर स्वर्ग जाने की बातें मिथकों में तो जीवित हैं पर बिहार के राजनीतिक सोच वाले लोग भला इस बात के लिये कैसे राजी होते कि चुनाव में कोई नेता या पार्टी गाय की पूंछ पकड़कर विधानसभा पहुंचे। बिहार ने गाय की राजनीति पर जारी राष्ट्रीय विमर्श को नया आयाम देते हुए इस चैप्टर को अब खत्म कर दिया है। बड़ा संदेश है कि एक सेक्युलर लोकतंत्र में गाय पर सांप्रदायिक गोलबंदी नहीं होनी चाहिये। 
एनडीए के प्रचार अभियान में धन-दौलत का दबदबा दिखा। बिहार के आम लोगों, खासतौर पर गरीब मतदाताओं को लगा कि यह अमीर पार्टी है। भाजपा का प्रचार तामझाम भरा था, पूरा फाइव-स्टार। उसमें भारतीय क्या बिहारी संस्कृति भी नहीं दिखाई दे रही थी। उसके मुकाबले महागठबंधन का प्रचार अभियान ज्यादा देसी और सघन था। राजद और जद(यू) के प्रवक्ता के रूप में क्रमशः प्रो. मनोज झा(राजद) और पवन कुमार वर्मा, केसी त्यागी आदि (जद-यू) अपने प्रतिद्वन्द्वी भाजपा के संविद पात्रा या श्रींकांत शर्मा के मुकाबले ज्यादा संयत, धैर्यवान, समर्थ और विवेकशील नजर आये। बीच में प्रधानमंत्री ने जिस तरह की टिप्पणियां कीं, उन पर लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती का पलटवार आम लोगों को भी पसंद आया। गठबंधन के नेताओं-प्रवक्ताओं ने अपनी बातों को पुरजोर ढंग से लोगों के समक्ष रखा। नीतीश के प्रचार तंत्र में अहम सलाहकार के रूप में काम कर रहे प्रशांत किशोर का काम भी कारगर साबित हुआ।
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